मुख्य संपादक – सैफ अली सिद्दीकी
हल्द्वानी। इस्लाम के पांच बुनियादी अरकान में से एक रोज़ा, यानी रमज़ान उल मुबारक का महीना, अपनी अजीम फजीलतों और बरकतों की वजह से मुस्लिम समाज में खास अहमियत रखता है। लाल मस्जिद लाइन नंबर 17, हल्द्वानी के इमामें ख़तीबी मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने इस मुकद्दस महीने की अहमियत और फजीलत पर बयान देते हुए कहा कि यह महीना सिर्फ भूखे-प्यासे रहने का नाम नहीं, बल्कि ताज़गी, पाकीज़गी और अल्लाह की रहमतें समेटने का ज़रिया भी है। उन्होंने इस्लामी तालिमात के मद्देनजर रोज़े, सहरी, और अफ्तार की खास अहमियत पर जोर देते हुए मौजूदा दौर में सोशल मीडिया के असरात पर भी रोशनी डाली।

रमज़ान की फजीलत और अहमियत
मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने बताया कि रमज़ान उल मुबारक वह महीना है जिसमें कुरआन-ए-पाक नाज़िल किया गया, जो इंसान की हिदायत का सरचश्मा है। इस महीने में अल्लाह तआला अपनी खास रहमतें बंदों पर नाजिल करता है और उनके गुनाह माफ कर देता है। उन्होंने बताया कि यह माह इबादत, सब्र, तकवा और अल्लाह की रज़ा हासिल करने का है। इस महीने में जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं और जहन्नम के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं।


सहरी और अफ्तार की खास अहमियत
मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने कहा कि सहरी और अफ्तार रमज़ान के दो खास हिस्से हैं, जिनका ज़िक्र हदीस शरीफ में भी मिलता है। उन्होंने फरमाया कि सहरी करना सुन्नत है और इसमें बरकत होती है। हदीस-ए-नबवी के मुताबिक, “सहरी किया करो क्योंकि सहरी में बरकत है।” उन्होंने कहा कि सहरी से इंसान को रोज़े के दौरान ताकत मिलती है और यह अल्लाह की एक खास नेमत है।

वहीं, अफ्तार के बारे में उन्होंने कहा कि रोज़ेदार के लिए यह अल्लाह की सबसे बड़ी इनायत होती है। हदीस शरीफ में आता है कि रोज़ेदार के लिए दो खुशियां होती हैं – एक जब वह रोज़ा खोलता है और दूसरी जब वह अपने परवरदिगार से मुलाकात करेगा। मुफ्ती साहब ने इस बात पर जोर दिया कि अफ्तार में जल्दबाजी करनी चाहिए और खजूर या पानी से अफ्तार करना सुन्नत है।
मौजूदा दौर में सोशल मीडिया का असर
आज के दौर में सोशल मीडिया इंसानी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने कहा कि रमज़ान जैसे मुकद्दस महीने में मुसलमानों को सोशल मीडिया के इस्तेमाल में एहतियात बरतनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अफसोस की बात यह है कि कुछ लोग इबादत और तिलावत में वक्त गुजारने के बजाय सोशल मीडिया पर गैर जरूरी बहसों में वक्त जाया करते हैं। उन्होंने खासतौर पर ताकीद की कि इस महीने में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सिर्फ दीन की तालीमात और भलाई के कामों के लिए किया जाए।
मुफ्ती साहब ने मुसलमानों को सलाह दी कि वे सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों और ग़लत मालूमात से बचे रहें। उन्होंने कहा कि रमज़ान तौबा और गुनाहों से बचने का महीना है, लिहाजा हमें अपने वक्त को ज्यादा से ज्यादा इबादत, कुरआन की तिलावत और नेक कामों में लगाना चाहिए।
सफर में रोज़ा रखने या ना रखने पर मुफ्ती मोहम्मद रिजवान का बयान
मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने सफर के दौरान रोज़ा रखने या न रखने के मसले पर कुरआन और हदीस की रोशनी में बयान देते हुए कहा कि इस्लाम एक आसान दीन है, जो अपने मानने वालों के लिए सहूलत का हुक्म देता है। उन्होंने बताया कि अल्लाह तआला ने कुरआन-ए-पाक में सफर के दौरान रोज़ा छोड़ने की इजाजत दी है।
उन्होंने कुरआन की इस आयत का हवाला दिया:
“और जो शख्स बीमार हो या सफर में हो, तो वह दूसरे दिनों में उतने ही रोज़े रख ले।” (सूरह अल-बकरह: 185)
मुफ्ती साहब ने कहा कि अगर कोई मुसाफिर सफर के दौरान खुद को मजबूत महसूस करता है और आसानी से रोज़ा रख सकता है, तो वह रख सकता है। लेकिन अगर सफर में रोज़ा रखने से किसी तरह की मुश्किल पेश आती है, तो इस्लाम ने उसे यह रियायत दी है कि वह रोज़ा छोड़ सकता है और बाद में उसकी कज़ा कर सकता है।
उन्होंने हदीस शरीफ का हवाला देते हुए बताया कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खुद भी सफर के दौरान कभी रोज़ा रखा और कभी छोड़ा, ताकि उम्मत के लिए सहूलत रहे। एक हदीस में आता है:
“रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब सफर में होते तो कभी रोज़ा रखते और कभी छोड़ देते। सहाबा में से जो रखना चाहता, वह रखता और जो छोड़ना चाहता, वह छोड़ देता।” (सहीह मुस्लिम: 1113)
सफर में रोज़ा छोड़ने की शर्तें
मुफ्ती साहब ने बताया कि सफर में रोज़ा छोड़ने की कुछ शर्तें हैं:
- सफर कम से कम 78 किलोमीटर या उससे ज्यादा का हो।
- सफर का आगाज रोज़े से पहले हो चुका हो।
- सफर में तकलीफ या कमजोरी महसूस हो रही हो।
उन्होंने कहा कि इस्लाम की खूबसूरती इसी में है कि यह इंसान की ताकत और हालात को मद्देनजर रखकर अहकाम जारी करता है। इसलिए अगर कोई मुसाफिर कमजोर महसूस कर रहा हो, तो वह इस रियायत का फायदा उठा सकता है और बाद में उसकी कज़ा कर सकता है। लेकिन अगर कोई रोज़ा सहूलत के साथ रख सकता है, तो उसे रखने में कोई हर्ज नहीं।
अवाम के लिए नसीहत
अंत में मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने मुसलमानों से अपील की कि वे रमज़ान के हर हुक्म को समझदारी और दीनी इल्म के साथ अपनाएं। उन्होंने कहा कि बेवजह खुद को मुश्किल में डालने के बजाय, इस्लाम के दिए हुए सहूलत वाले अहकाम पर अमल करना चाहिए। अगर कोई रोज़ा नहीं रखता, तो उसे बाद में उसकी कज़ा जरूर करनी चाहिए, ताकि रमज़ान की बरकतों से महरूम न रहे।
अवाम के लिए खास पैगाम
अपने बयान के आखिर में मुफ्ती मोहम्मद रिजवान ने अवाम से अपील की कि वे इस मुबारक महीने की कद्र करें और ज्यादा से ज्यादा अल्लाह की इबादत में मशगूल रहें। उन्होंने कहा कि रमज़ान सिर्फ भूखे-प्यासे रहने का नाम नहीं, बल्कि अपनी आदतों को सुधारने और अल्लाह से मजबूत रिश्ता जोड़ने का जरिया है। उन्होंने मुसलमानों से गुजारिश की कि वे इस महीने में गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करें, ज्यादा से ज्यादा सदका-ए-खैरात दें, और अपनी जिंदगी को दीन के मुताबिक ढालने की कोशिश करें।
मुफ्ती साहब ने यह भी कहा कि रमज़ान हमें सब्र और तकवा सिखाने के लिए आता है, इसलिए हमें अपनी जबान, अपने अमल और अपने दिल को पाक रखने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जो लोग इस महीने को सच्चे दिल से गुजारेंगे, अल्लाह तआला उनकी तमाम मुश्किलों को आसान करेगा और उन्हें जन्नत में ऊंचा मकाम अता करेगा।
रमज़ान उल मुबारक की आमद मुबारक हो!
